सबसे सुरक्षित तो अब अपना ही घर लगता है,
जरा सा बाहर कदम रखने से भी डर लगता है.
शहर की सारी सड़कें पड़ी हैं वीरान यारों,
मुझे तो ये खंजरे-नफ़रत का असर लगता है.
मगर कुछ हाथ मौजूद हैं अभी भी प्यार लिए,
वो प्यार रेगिस्तान का एक सादाब शज़र लगता है.
बैठे हैं दो चार लोग अभी भी चौपाल पर,
कितना हसीं-ओ-खुशनुमा ये मंजर लगता है.
चाहे दुनिया बनाए आसियाने कितने ही गजब के,
Saandar jabardast nehra bhai
ReplyDeleteMst...Ekk no..
ReplyDelete