केवल परिंदों का बसेरा नहीं है ये शज़र,
सारी कुदरत का नशेमन है ये शज़र।
तुम दरख्तों को काट रहे हो ऐसा नहीं है,
जल्दी संभलो! खुद पर चला रहे हो खंजर।
सोचो अगर न मिलता माँ का आंचल,
वैसा ही होगा बिन पेड़ों का मंजर।
खेत-खलिहान, नदी-तालब, वन-उपवन,
नहीं होंगे ये नज़ारे जब न होंगे शज़र।
गौर फरमाना जरा तुम इस बात पर,
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